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श्री सत्यनारायण व्रत कथा एवं पूजन विधि

Shri Satyanarayan Vrat Katha and worship method

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Satyanarayan-Vrat-Katha

श्री सत्यनारायण व्रत कथा एवं पूजन विधि

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श्री सत्यनारायण व्रत कथा - चौथा अध्याय

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

अथ चतुर्थोऽध्यायः

असत्य-भाषण तथा भगवान् के प्रसाद की अवहेलना का परिणाम

सूत उवाच
यात्रां तु कृतवान् साधुर्मङ्गलायनपूर्विकाम्। ब्राह्मणेभ्यो धनं दत्त्वा तदा तु नगरं ययौ ।॥१॥ कियद् दूरे गते साधौ सत्यनारायणः प्रभुः। जिज्ञासां कृतवान् साधो किमस्ति तव नौस्थितम् ॥२॥ ततो महाजनौ मत्तौ हेलया च प्रहस्य वै। कथं पृच्छसि भो दण्डिन् मुद्रां नेतुं किमिच्छसि ॥३॥ लतापत्रादिकं चैव वर्तते तरणौ मम। निष्ठुरं च वचः श्रुत्वा सत्यं भवतु ते वचः॥४॥ एवमुक्त्वा गतः शीघ्रं दण्डी तस्य समीपतः। कियद् दूरे ततो गत्वा स्थितः सिन्धु समीपतः ॥५॥

श्रीसूतजी बोले-वैश्य ने मंगलाचार और ब्राह्मणों को धन देकर अपने नगर की यात्रा आरंभ की, और उनके थोड़ी दूर पहुँचने पर भगवान् सत्यनारायण की साधू के सत्यता की परीक्षा लेने की जिज्ञासा हुई, दण्डी का वेश धारण कर सत्यनारायण भगवान ने उनसे पूछा-हे साधो! आपकी नाव में क्या भरा है? अभिमानी वणिक हँसता हुआ अवहेलना पूर्वक बोला- हे दण्डिन् ! आप क्यों पूछते हैं? क्या कुछ द्रव्य लेने की इच्छा है? मेरी नाव में तो बेल तथा पत्ते आदि भरे हैं। वैश्य की ऐसी निष्ठुर वाणी सुनकर भगवान् ने कहा तुम्हारा वचन सत्य हो। ऐसा कहकर दण्डी सन्यासी का रूप धारण किये हुए सत्यनारायण भगवान् वहाँ से चले गये और कुछ दूर जाकर समुद्र के किनारे बैठ गये ।।१-५।।

गते दण्डिनि साधुश्च कृतनित्यक्रियस्तदा। उत्थितां तरणीं दृष्ट्वा विस्मयं परमं ययौ ।॥६॥ वृष्ट्वा लतादिकं चैव मूच्छितो न्यपतद् भुवि। लब्धसंज्ञो वणिक्पुत्रस्ततश्चिन्तान्वितोऽभवत्। ॥७॥ तदा तु दुहितुः कान्तो वचनं चेदमब्रवीत्। किमर्थं क्रियते शोकः शापो दत्तश्च दण्डिना ।॥८॥ शक्यते तेन सर्वं हि कर्तुं चात्र न संशयः। अतस्तच्छरणं यामो वाञ्छतार्थो भविष्यति ।।९।। जामातुर्वचनं श्रुत्वा तत्सकाशं गतस्तदा। दृष्ट्वा च दण्डिनं भक्त्या नत्वा प्रोवाच सादरम् ॥१०॥ क्षमस्व चापराधं मे यदुक्तं तव सन्निधौ। एवं पुनः पुनर्नत्वा महाशोकाकुलो ऽभवत्। ॥११॥

दण्डी के चले जाने पर वैश्य ने नित्यक्रिया करने के पश्चात् नाव को जल में ऊपर की ओर उठी हुई देखकर अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गया, तथा नाव में बेल आदि देखकर मूर्छित हो जमीन पर गिर पड़ा। फिर मूर्छा खुलने पर बहुत शोक करने लगा तब उसके दामाद ने इस प्रकार कहा-आप शोक न करें यह दण्डी का श्राप है, अतः उनकी शरण में चलना चाहिए तभी हमारी मनोकामना पूरी होगी क्योंकि वे चाहें तो सब कुछ कर सकते हैं इसमें कोई संशय नहीं है। दामाद के वचन सुनकर वह साधु वणिक् दण्डी-स्वामीजी के पास पहुँचा। अत्यन्त भक्तिभाव से प्रणाम करके बोला-मैंने जो आपसे असत्य वचन कहे थे, उसके लिए क्षमा कीजिए ऐसा कहकर महान् शोकातुर हो रोने लगा।।६-११।।

प्रोवाच वचनं दण्डी विलपन्तं विलोक्य च। मा रोदीः शृणुमद्वाक्यं मम पूजाबहिर्मुखः ॥१२॥ ममाज्ञया च दुर्बुद्धे लब्धं दुःखं मुहुर्मुहुः। तच्छ्रुत्वा भगवद्वाक्यं स्तुतिं कर्तुं समुद्यतः ॥१३॥

तब दण्डी भगवान् बोले- हे मूर्ख ! रो मत, मेरी बात सुनो। मेरी पूजा से उदासीन होने के कारण तथा मेरी आज्ञा से बार-बार तुम्हें दुःख प्राप्त हुआ है। भगवान् की ऐसी वाणी सुनकर साधू वणिक् उनकी स्तुति करने लगा ।।१२-१३।।

साधुरुवाच
त्वन्मायामोहिताः सर्वे ब्रह्माद्यास्त्रिदिवौकसः। न जानन्ति गुणान् रूपं तवाश्चर्यमिदं प्रभो ॥१४॥ मूढोऽहं त्वां कथं जाने मोहितस्तवमायया। प्रसीद पूजयिष्यामि यथाविभवविस्तरैः ।॥१५॥ पुरा वित्तं च तत् सर्वं त्राहि मां शरणागतम्। श्रुत्वा भक्तियुतं वाक्यं परितुष्टो जनार्दनः ॥१६॥

साधु ने कहा-हे भगवान् ! यह आश्चर्य की बात है कि आपकी माया से मोहित होने के कारण ब्रह्मा आदि देवता भी आपके रूप और गुणों को ठीक रूप से नहीं जान पाते, फिर मैं अज्ञानी आपकी माया से मोहित होने के कारण कैसे जान सकता हूँ? आप प्रसन्न होइए मैं सामर्थ्य के अनुसार आपकी पूजा करूँगा। मैं आपकी शरण में आया हूँ मेरा जो नौका में स्थित पुराना धन था, उसकी तथा मेरी रक्षा करें, और पहले की तरह मेरा सामान नौका में भर जाय। उसके भक्तियुक्त वचन सुनकर भगवान् जनार्दन सन्तुष्ट हो गये ।।१४-१६।।

वरं च वाञ्छितं दत्त्वा तत्रैवान्तर्दधे हरिः। ततो नवं समारुह्य दृष्ट्वा वित्तप्रपूरिताम् ॥१७॥ कृपया सत्यदेवस्य सफलं वाञ्छितं मम। इत्युक्त्वा स्वजनैः सार्धं पूजां कृत्वा यथाविधि ॥१८॥ हर्षेण चाभवत् पूर्णः सत्यदेवप्रसादतः। नावं संयोज्य यत्नेन स्वदेशगमनं कृतम् ॥१९॥ साधुर्जामातरं प्राह पश्य रन्तपुरीं मम। दूतं च प्रेषयामास निजवित्तस्य रक्षकम् ॥२०॥

भगवान् हरि उसकी इच्छानुसार वर देकर अन्तर्धान हो गये। तब उन्होंने नाव पर आकर देखा कि नाव धन से परिपूर्ण है, तब भगवान् के प्रति कृतज्ञता प्रकट की और वह स्वजनों के साथ भगवान् सत्यदेव का पूजन किया, और नाव को यत्न पूर्वक सभाँलकर साथियों सहित अपने नगर को चला। साधु वणिक् ने अपने दामाद से कहा- 'वह देखो मेरी रत्नपुरी नगरी दिखाई दे रही है। इसके बाद उसने अपने धन के रक्षक दूतों को अपने आगमन का समाचार देने के लिये अपनी नगरी में भेजा।।१७-२०।।

ततोऽसौ नगरं गत्वा साधुभार्यां विलोक्य च। प्रोवाच वाञ्छितं वाक्यं नत्वा बद्धाञ्जलिस्तदा ॥२१॥ निकटे नगरस्यैव जामात्रा सहितो वणिक्। आगतो बन्धुवर्गेश्च वित्तैश्च बहुभिर्युतः ॥२२॥ श्रुत्वा दूतमुखाद्वाक्यं महाहर्षवती सती। सत्यपूजां ततः कृत्वा प्रोवाच तनुजां प्रति ॥२३॥ व्रजामि शीघ्रमागच्छ साधुसंदर्शनाय च । इति मातृवचः श्रुत्वा व्रतं कृत्वा समाप्य च ॥२४॥ प्रसादं च परित्यज्य गता साऽपि पतिं प्रति। तेन रुष्टाः सत्यदेवो भर्तारं तरणिं तथा ॥२५॥ संहृत्य च धनैः सार्धं जले तस्यावमज्ञ्जयत्।

तत्पश्चात् उस दूत ने नगर में जाकर साधू की भार्या को देख हाथ जोड़ कर प्रणाम किया और उसके अभीष्ट की बात कही कि साधू अपने दामाद सहित बहुत सा धन लेकर इस नगर के समीप आ गये हैं। ऐसा वचन सुन लीलावती ने बड़े हर्ष के साथ सत्यदेव का पूजन कर पुत्री से कहा मैं अपने पति के दर्शन करने जाती हूँ, तुम कार्य पूर्ण करके शीघ्र आना, माता का ऐसा वचन सुनकर कलावती व्रत को समाप्त करके प्रसाद छोड़ पति के दर्शन के लिये चली गई। प्रसाद की अवज्ञा के कारण सत्यदेव ने रुष्ट हो उनके पति को नाव सहित पानी में डुबो दिया।।२१-२५/२।।

ततः कलावती कन्या न विलोक्य निजं पतिम् ॥२६॥
शोकेन महता तत्र रुदन्ती चापतद् भुवि। वृष्ट्वा तथाविधां नावं कन्यां च बहुदुःखिताम् ॥२७॥ भीतेन मनसा साधुः किमाश्चर्यमिदं भवेत्। चिन्त्यामानाश्च ते सर्वे बभूवुस्तरिवाहकाः ॥२८॥ ततो लीलावती कन्यां दृष्ट्वा सा विह्वलाऽभवत्। विललापातिदुःखेन भर्तारं चेदमब्रवीत् ॥२९॥ इदानीं नौकया सार्धं कथं सोऽभूदलक्षितः। न जाने कस्य देवस्य हेलया चैव सा हृता ॥३०॥ सत्यदेवस्य माहात्म्यं ज्ञातुं वा केन शक्यते। इत्युक्त्वा विललापैव ततश्च स्वजनैः सह ॥३१॥
ततो लीलावती कन्यां क्रोडे कृत्वा रुरोव ह।

तत्पश्चात् कलावती अपने पति को न देखकर रोती हुई, महान् शोकातुर होकर जमीन पर गिर गई इस तरह नौका को डूबा हुआ तथा कन्या को रोता देख साधू दुखित हो मन में विचार करने लगा-यह क्या आश्चर्य हो गया? नाव का संचालन करने वाले भी चिन्तित हो गये। लीलावती भी कन्या को व्याकुल देखकर विह्वल हो गयी और अत्यन्त दुःख से विलाप करती हुई अपने पति से इस प्रकार कहने लगी 'अभी-अभी नौका के साथ दामाद कैसे अलक्षित हो गया, न जाने किस देवता की उपेक्षा से नौका हरण कर ली गयी अथवा श्रीसत्यनारायण की महिमा कौन जान सकता है!' ऐसा कहकर स्वजनो के साथ विलाप करने लगी और कन्या कलावती को गोद में लेकर रोने लगी।। २६-३११/२।।

ततःकलावती कन्या नष्टे स्वामिनि दुःखिता ।॥३२॥ गृहीत्वा पादुके तस्यानुगन्तुं च मनोवधे। कन्यायाश्चरितं दृष्ट्वा सभार्यः सज्जनो वणिक् ॥३३॥ सत्यपूजां करिष्यामि यथाविभवविस्तरैः। अतिशोकेन संतप्तश्चिन्तयामास धर्मवित्। हृतं वा सत्यदेवेन भ्रान्तोऽहं सत्यमायया ॥३४॥ इति सर्वान् समाहृय कथयित्वा मनोरथम् ॥३५॥ नत्वा च दण्डवद् भूमौ सत्यदेवं पुनः पुनः। ततस्तुष्टः सत्यदेवो दीनानां परिपालकः ॥३६॥ जगाद वचनं चैनं कृपया भक्तवत्सलः। त्यक्त्वा प्रसादं ते कन्या पतिं द्रष्टुं समागता ॥३७॥ अतोऽदृष्टोऽभवत्तस्याः कन्यकायाः पतिध्रुवम्। गृहं गत्वा प्रसादं च भुक्त्वा साऽऽयाति चेत्पुनः ॥३८॥ लब्धभर्ती सुता साधो भविष्यति न संशयः।

कलावती कन्या भी अपने पति के नष्ट हो जाने पर दुःखी हो गयी और अपने पति की पादुका लेकर उनका अनुगमन करने के लिये उसने मन में निश्चय किया। कन्या के इस प्रकार के आचरण को देखकर पत्नी सहित वह साधु वणिक् बहुत दुःखी हुआ और विचार करने लगा-या तो भगवान् सत्यदेव ने दामाद के साथ धन-धान्य से भरी इस नौका का अपहरण किया है अथवा हम सभी उनकी माया से मोहित हो गये हैं। हे प्रभु! अपनी धन-शक्ति के अनुसार मैं आपकी पूजा करूँगा' सभी के सामने साधु ने अपने मन की इच्छा प्रकट की और बारम्बार भगवान् सत्यदेव को दण्डवत् प्रणाम किया, एवं प्रार्थना की कि हे प्रभो! मुझसे या मेरे परिवार से जो भूल हुई उसे क्षमा करो। उसके दीन वचन सुनकर भगवान् दीनानाथ को दया आ गई और आकाशवाणी के द्वारा कृपापूर्वक बोले-हे साधू तेरी कन्या ने मेरे प्रसाद को छोड़कर अपने पति को देखने चली आयीं है, निश्चय ही यही कारण है कि उसका पति दिखाई नहीं दे रहा है। यदि घर जाकर प्रसाद ग्रहण कर आये तो तुम्हारी पुत्री निश्चितरूप से पति को प्राप्त करेगी, इसमें संशय नहीं है।।३२-३८/२।।

कन्यका तादृशं वाक्यं श्रुत्वा गगनमण्डलात् ॥३९॥ क्षिप्रं तदा गृहं गत्वा प्रसादं च बुभोज सा। पश्चात् सा पुनरागत्य ददर्श स्वजनं पतिम् ।।४०॥ ततः कलावती कन्या जगाद पितरं प्रति। इदानीं च गृहं याहि विलम्बं कुरुषे कथम्।॥४१॥ तच्छ्रुत्वा कन्यकावाक्यं संतुष्टोऽभूद् वणिक्सुतः । पूजनं सत्यदेवस्य कृत्वा विधिविधानतः ॥४२॥ धनैर्बन्धुगणैः सार्धं जगाम निजमन्दिरम्। पौर्णमास्यां च संक्रान्तौ कृतवान् सत्यस्य पूजनम्॥४३॥ इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥४४॥

आकशवाणी को सुन कलावती ने शीघ्र घर पहुँचकर प्रसाद ग्रहण किया और पुनः उसने आकर अपने पति का दर्शन पाया। तब वैश्य परिवार के सब लोग प्रसन्न हुए। कलावती कन्या ने अपने पिता से कहा-'अब विलम्ब क्यों कर रहे हैं? अब तो घर चलें। कन्या की बात सुनकर वणिक्पुत्र सन्तुष्ट हो गया और साधू ने बन्धु-बांधवों सहित सत्यदेव का विधिपूर्वक पूजन किया, और धन तथा बन्धु बान्धवों के साथ अपने घर को गया। उस दिन से हर पूर्णिमा व संक्रान्ति एवं विशेष पर्वों में सत्यनारायण भगवान् का पूजन करते हुए इस लोक में सुख भोगकर वैकुण्ठ में चला गया।।३९-४४।।

।। इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां चतुर्थोऽध्यायः ॥
॥ इस प्रकार श्री स्कन्द पुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायण व्रतकथा का यह चौथा अध्याय पूरा हुआ ॥४॥

 

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