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श्री सत्यनारायण व्रत कथा एवं पूजन विधि

Shri Satyanarayan Vrat Katha and worship method

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Satyanarayan-Vrat-Katha

श्री सत्यनारायण व्रत कथा एवं पूजन विधि

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श्री सत्यनारायण व्रत कथा - दूसरा अध्याय

॥ श्रीगणेशाय नमः ॥

अथ द्वितीयोऽध्यायः

निर्धन ब्राह्मण तथा लकड़हारे की कथा

सूत उवाच

अथान्यत् सम्प्रवक्ष्यामि कृतं येन पुरा द्विजाः। कश्चित् काशीपुरे रम्ये ह्यासीद्विप्रोऽतिनिर्धनः ॥१॥ क्षुतृभ्यां व्याकुलोभूत्वा नित्यं बभ्राम भूतले। दुःखितं ब्राह्मणं दृष्ट्वा भगवान् ब्राह्मणप्रियः ॥२॥ वृद्धब्राह्मण रूपस्तं पप्रच्छ द्विजमादरात् । किमर्थं भ्रमसे विप्र महीं नित्यं सुदुःखितः ।॥३॥ तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामि कथ्यतां द्विज सत्तम।

सूतजी बोले-हे द्विजो! जिसने पहले समय में इस व्रत को किया है, उसका इतिहास कहता हूँ, उसे ध्यान से सुनो। एक सुन्दर काशीपुरी नाम की नगरी में एक अति निर्धन ब्राह्मण रहता था, वह ब्राह्मण भूख और प्यास से व्याकुल हुआ नित्य ही पृथ्वी पर घूमता था। ब्राह्मणों से प्रेम करने वाले (ब्राह्मण प्रियः) भगवान् श्रीविष्णुजी ने ब्राह्मण को दुखी देखकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण कर उसके पास जाकर आदरपूर्वक पूछा-हे विप्र ! नित्य दुःखी होकर पृथ्वी पर क्यों घूमते हो? हे श्रेष्ठ ब्राह्मण! वह सब मुझसे कहो मैं सुनना चाहता हूँ।। १-३२/२।।

ब्राह्मण उवाच

ब्राह्मणोऽति दरिद्रोऽहं भिक्षार्थं वै भ्रमे महीम् ॥४॥ उपायं यदि जानासि कृपया कथय प्रभो। ब्राह्मण बोला-हे प्रभो! मैं बहुत निर्धन ब्राह्मण हूँ, भिक्षा के लिये ही पृथ्वी पर घूमता हूँ (भिक्षार्थ वैभ्रमे महीम्)। हे भगवन्! आप इस निर्धनता (दरिद्रता) से छुटकारा दिलाने वाला कोई उपाय जानते हों तो कृपा पूर्वक बतलाइये ।।४४/२।।

वृद्धब्राह्मण उवाच
सत्यनारायणो विष्णुर्वाञ्छितार्थफलप्रदः ।।५ ॥
तस्य त्वं पूजनं विप्र कुरुष्व व्रतमुत्तमम। यत्कृत्वा सर्ववुः खेभ्यो मुक्तो भवति मानवः ॥६॥ विधानं च व्रतस्यापि विप्रायाभाष्य यत्नतः। सत्यनारायणो वृद्धस्तत्रैवान्तरधीयत ।।७।। तद् व्रतं संकरिष्यामि यदुक्तं ब्राह्मणेन वै। इति संचिन्त्य विप्रोऽसौ रात्रौ निद्रा न लब्धवान् । ॥८ ॥

वृद्धब्राह्मण रूपधारी भगवान् श्रीविष्णुजी ने कहा- हे ब्राह्मणदेव ! भगवान् सत्यनारायण मनोवाञ्छित फल देने वाले हैं। इसलिये हे विप्र ! तुम सत्यनारायण का व्रत एवं पूजन करो, सत्यव्रत करने से मनुष्य सभी दुःखों से मुक्त होता है। ब्राह्मण को यत्न पूर्वक व्रत का सम्पूर्ण विधान बतलाकर बूढ़े ब्राह्मण का रूप धारण करने वाले सत्यनारायण भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। जिस व्रत को वृद्ध ब्राह्मण ने बतलाया है, उस व्रत को मैं निश्चय ही करूँगा। यह निश्चय कर निर्धन ब्राह्मण को (रात्रौनिद्रा न लब्धवान्) रात्रि में नींद नहीं आयी।।५-८।।

ततः प्रातः समुत्थाय सत्यनारायणव्रतम् । करिष्य इति संकल्प्य भिक्षार्थमगमद्विजः ॥९॥ तस्मिन्नेव दिने विप्रः प्रचुरं द्रव्यमाप्तवान् । तेनैव बन्धुभिः सार्धं सत्यस्यव्रतमाचरत् ।।१०।।
सर्ववुःखविनिर्मुक्तः सर्वसम्पत्समन्वितः । बभूव स द्विजश्रेष्ठो व्रतस्यास्य प्रभावतः ॥११॥

ततः प्रभृति कालं च मासि मासि व्रतं कृतम्। एवं नारायणस्येवं व्रतं कृत्वा द्विजोत्तमः । सर्वपापविनिर्मुक्तो दुर्लभं मोक्षमाप्तवान् ॥१२॥

तदनन्तर वह ब्राह्मण प्रातःकाल उठा नित्यक्रिया से निवृत्त हो श्रीसत्यनारायणजी के व्रत का निश्चय कर भिक्षा के लिये चल पड़ा। भगवत्-कृपा से उस दिन उसको भिक्षा में बहुत सा धन मिला जिससे बन्धु बान्धवों के साथ उसने सत्यनारायण व्रत किया। इस प्रकार सत्यनारायण की महिमा से ब्राह्मण सब दुःखों से छूटकर अनेक प्रकार की सम्पत्तियों से युक्त हो गया। उस दिन से लेकर प्रत्येक महीने उसने व्रत किया। इस प्रकार भगवान् सत्यनारायण के इस व्रत को करके वह श्रेष्ठ ब्राह्मण सभी पापों से मुक्त हो दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त किया।।९-१२।।

व्रतमस्य यदा विप्र पृथिव्यां संकरिष्यति। तवैव सर्ववुःखं तु मनुजस्य विनश्यति ॥१३॥ एवं नारायणेनोक्तं नारदाय महात्मने। मया तत्कथितं विप्राः किमन्यत् कथयामि वः ।॥१४॥

हे विप्र ! पृथिवी पर जो मनुष्य 'श्री सत्यनारायण व्रतकथा' करता है, वह सब पापों से छूटकर दुर्लभमोक्ष का अधिकारी बनता है। आगे जो पृथ्वी पर 'सत्यनारायण व्रत कथा' करेगा वह मनुष्य सब दुःखों से छूट जायेगा। हे ब्राह्मणो! इस तरह नारायणजी के श्रीमुख से कहा हुआ यह व्रत मैंने तुमसे कहा-हे ऋषियो ! और क्या सुनना चाहते हो ? ।।१३-१४।।

ऋषय ऊचुः
तस्माद् विप्राच्छ्रुतं केन पृथिव्यां चरितं मुने। तत्सर्वं श्रोतुमिच्छामः श्रद्धाऽस्माकं प्रजायते ॥१५॥

ऋषियों ने कहा-हे मुनीश्वर! पृथ्वी में उस ब्राह्मण से सुनकर किस-किस ने इस व्रत को किया? हम वह सब सुनना चाहते हैं। सत्यनारायणव्रत पर हमारी श्रद्धा हो रही है।।१५।।

सूत उवाच
शृणुध्वं मुनयः सर्वे व्रतं येन कृतं भुवि । एकदा स द्विजवरो यथाविभव विस्तरैः ॥१६॥ बन्धुभिः स्वजनैः सार्धं व्रतं कर्तुं समुद्यतः। एतस्मिन्नन्तरे काले काष्ठक्रेता समागमत् ॥१७॥ बहिः काष्ठं च संस्थाप्य विप्रस्य गृहमाययौ। तृष्णया पीडितात्मा च दृष्ट्वा विप्रं कृतं व्रतम् ॥१८॥ प्रणिपत्य द्विजं प्राह किमिदं क्रियते त्वया। कृते किं फलमाप्नोति विस्तराद् वद मे प्रभो ॥१९॥

श्रीसूतजी बोले-हे मुनियो! पृथिवी में जिस-जिसने इस व्रत को किया है वह सब सुनो-एक समय वह ब्राह्मण धन और ऐश्वर्य के अनुसार बन्धु-बान्धवों के साथ व्रत करने को तैयार हुआ। उसी समय एक लकड़हारा आया, और बाहर लकड़ियों का गट्ठर रखकर ब्राह्मण के घर में गया। प्यास से दुःखी लकड़हारे ने ब्राह्मण को व्रत करते देख ब्राह्मण को नमस्कार कर कहने लगा कि हे प्रभो! आप यह क्या कर रहे हैं, और इसके करने से क्या फल मिलता है? कृपा कर विस्तार पूर्वक मुझसे कहें।। १६-१९।।

विप्र उवाच
सत्यनारायणस्येवं व्रतं सर्वेप्सितप्रदम् । तस्य प्रसादान्मे सर्वं धनधान्यादिकं महत्॥२०॥ तस्मादेतद् व्रतं ज्ञात्वा काष्ठक्रेताऽतिहर्षितः। पपौ जलं प्रसादं च भुक्त्वा स नगरं ययौ ।॥२१॥ सत्यनारायणं देवं मनसा इत्यचिन्तयत्। काष्ठं विक्रयतो ग्रामे प्राप्यते चाद्य यद् धनम् ॥२२॥ तेनैव सत्यदेवस्य करिष्ये व्रतमुत्तमम् । इति संचिन्त्य मनसा काष्ठं धृत्वा तु मस्तके ॥२३॥ जगाम नगरे रम्ये धनिनां यत्र संस्थितिः। तद्दिने काष्ठमूल्यं च द्विगुणं प्राप्तवानसौ ॥२४॥

ब्राह्मण ने कहा-सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला यह श्रीसत्यनारायण भगवान् का व्रत है। इसी व्रत के प्रभाव से मेरे यहाँ महान् धन-धान्य आदि की वृद्धि हुई है। ब्राह्मण से इस व्रत के बारे में जानकर लकड़हारा बहुत प्रसन्न हुआ चरणामृत और प्रसाद ग्रहण करके वह नगर चला गया। लकड़हारे ने मन में इस प्रकार का संकल्प किया कि आज ग्राम में लकड़ी बेचने से जो धन मुझे मिलेगा, उसी धन से सत्यनारायणदेव का उत्तम व्रत करूँगा। यह मन में विचार कर बूढ़ा लकड़हारा अपने सिर पर लकड़ियाँ रखकर जिस नगर में धनिक लोग रहते थे, ऐसे सुन्दर नगर में गया। फल-स्वरूप बूढ़े लकड़हारे को आज अन्य दिनों की अपेक्षा लकड़ियों का दाम दुगुनी मात्रा में मिला ।। २०-२४।।

ततः प्रसन्नहृदयः सुपक्वं कदली फलम्। शर्कराघृतदुग्धं च गोधूमस्य च चूर्णकम् ॥२५॥ कृत्वैकत्र सपादं च गृहीत्वा स्वगृहं ययौ। ततो बन्धून् समाहृय चकार विधिना व्रतम् ॥ २६ ॥ तद् व्रतस्य प्रभावेण धनपुत्रान्वितोऽभवत्। इहलोके सुखं भुक्त्वा चान्ते सत्यपुरं ययौ ॥२७॥

तदनन्तर वह बूढ़ा लकड़हारा दाम ले अतिप्रसन्न होकर सत्यनारायण व्रतकथा की सामग्री सवाया मात्रा में लेकर अपने घर गया। तत्पश्चात् उसने अपने बन्धु-बान्धवों एवं ब्राह्मणों को बुलाकर विधि-विधान से भगवान् सत्यनारायण के व्रत को किया। उस व्रत के प्रभाव से बूढ़ा लकड़हारा धन, पुत्र आदि से युक्त हुआ और संसार के समस्त सुखों को भोगकर बैकुण्ठ को गया।।२५-२७।।

॥ इति श्रीस्कन्दपुराणे रेवाखण्डे श्रीसत्यनारायण व्रतकथायां द्वितीयोऽध्यायः ॥
॥ इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अन्तर्गत रेवाखण्ड में श्रीसत्यनारायण व्रतकथा का यह दूसरा अध्याय पूरा हुआ ॥२॥

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